प्रिय मित्रों, इस लेख की श्रृंखलामें धर्म प्रसारकी सेवामें हुए कुछ रोचक एवं ह्रदयस्पर्शी प्रसगोंको आपके समक्ष प्रस्तुत करती रहूंगी, आशा करती हूँ, यह प्रसंग आपको भी कुछ सीख अवश्य ही देंगे !
वर्ष १९९९ की बात है | उस समय मैं झारखंडके एक जिलेमें प्रसारकी सेवा कर रही थी | एक दिन एक साधिकाके घर पर मैं थी और उनके पतिके मित्र आए थे, उनसे कुछ देर बातचीत कर पता चला कि इनमें साधनाकी क्षमता है, यदि उन्होने योग्य प्रकारसे साधना आरंभ की तो यह धर्मप्रसारके कार्यमें अधिक सहायता कर सकते हैं; परन्तु उन्हें कुछ आवश्यक कार्यसे जाना था, अतः हमारी कुछ विशेष बात नहीं हो पाई | उन्हें भी हमारी बातें अच्छी लगीं और वे कुछ जिज्ञासु प्रवृत्तिके भी दिखे |
उस समय मैं अकेली ही एक घरमें रहती थी और उसे ‘सेवा-केंद्र’ कहती थी | हमारा सेवा केंद्र पास ही था और वे चाहते थे कि हम रात्रिमें अध्यात्मके विषय पर उनसे अधिक चर्चा करें | उस स्त्री साधकने कहा, "ये और हमारे पति अभिन्न मित्र हैं, और प्रतिदिन रात्रि साढ़े नौ बजेसे साढ़े दस बजे तक हम सब मिलकर बातें करते हैं | आप उसी समय आ जाएँ, मैं आपको रात्रिमें सेवा केंद्र, अपने नौकरके साथ भिजवा दूँगी " |
सेवा केंद्र के साथ ही एक करोड़पतियोंकी कॉलोनी थी, वे सब उसीमें रहते थे | मैं रात्रिमें उनके यहाँ गयी और उन लोगोंने बड़े ध्यानपूर्वक मुझे सुना और अच्छे प्रश्न भी पूछे | वहाँ उपस्थित एक साधकके एक गुरु भी थे और उन्होने अपने गुरु संस्मरण सुनाये | उन्हें मेरेद्वारा बताये गए विषय भी अछे लगे और उन्होने अगले दिन पुनः रात्रिमें आनेका आमंत्रण दिया | मुझे अगले महीने दूसरे शहर प्रसारके लिए जाना था, अतः वहाँका कार्य किसी योग्य साधकको सौपकर जाना था, इन चारोंमें मुझे वे गुण दिखाई दे रहे थे, अतः मैंने अगले दिन पुनः आनेका निश्चय किया | अगले दिन पहुंची, तो बात ही बात में वे बोले, “तनुजा जी, वैसे तो हम संतों और साधकोंके सामने मद्यपान नहीं करते, परंतु आप तो उम्रमें हम सब से बहुत छोटी हैं, और आपको साधना आरम्भ किये दो ही वर्ष हुए हैं, अतः यदि आप बुरा न मानें तो हम थोड़ी-थोड़ी "ड्रिंक" ले लें? मैं असमंजस में पड़ गयी, न उन्हें 'हाँ ' कह पा रही थी, और न ही स्पष्ट रूप से "ना" कह पा रही थी | उसी दिन उन्होंने अपने तीन-चार मित्रों को मुझसे मिलने के लिए बुलाया था, और वे सब भी बड़ी जिज्ञासासे आध्यात्मिक प्रश्न मद्यकी चुस्कियोंके बीच सब पूछ रहे थे | मुझे बचपनसे ही शराब और सिगरेट पीने वालोंसे अत्यधिक चिढ़ थी और उसकी दुर्गन्ध भी सहन नहीं होती थी | मुझे विदेशी शराबकी दुर्गन्ध आ रही थी, मैं किसी प्रकार वह सब सहन कर उनकी जिज्ञासा शांत कर वापिस आ गयी और फिर कभी वहां न जाने का निश्चय कर लिया और उन सब पर हल्का सा क्रोध आ रहा था | अगले दिन उनका सुबह-सुबह दूरभाष आया कि उनके मित्रोंको मेरी बातें अत्यधिक अच्छी लगीं और वे सब भी कई स्थानोंपर प्रवचनका आयोजन करने की सोच रहे हैं | मैंने कुछ विशेष नहीं कहा | मैंने सोच लिया था - "चाहे वे प्रवचन आयोजित करवाएं या भविष्य में साधना करें, मैं अब उनके यहाँ जा कर अध्यात्मिक चर्चा नहीं करूंगी | मैं सेवा केंद्र में दूरदर्शन संच पर उस समय समाचारके लिए एक चैनल लगाया और उसमे एक संतका प्रवचन आ रहा था “वे कह रहे थे, कमलको तोड़नेके लिए कीचड़में जाना ही पड़ता है” | मेरे आँखोंमें आँसू थे, मैंने मन ही मन श्रीगुरुसे कहा “मुझे पता है, वे भविष्यमें साधना करेंगे, परंतु मुझे मद्यकी गंध सहन नहीं होती, मैं क्या करूँ “ | वे संत आगे कहने लगे, “ यदि कोई कीचड़से डरे, तो क्या कभी कमलको पा सकेगा?“ मैं ईश्वरका संकेत समझ गयी | उन सबका संध्यासे ही नौकरसे संदेश और दूरभाष आने लगा “मैं भारी मनसे वहाँ पहुंची, वहाँ उनके और कई मित्र अपनी पत्नीके साथ पधारे थे और वही वातावरण था, मैंने उनकी शंकाओं का समाधान किया और वे भी प्रसन्न हो साधना करने लगे | आज दस वर्षके पश्चात भी उनमें से तीन साधक साधनारत हैं, मात्र आज जहां पहले उनेक यहाँ ‘bar’ (शराब रखनेका विशेष) स्थान हुआ करता था , वहाँ हमारे श्रीगुरुका चित्र लगा रहता है | एक वर्ष पश्चात उनमेसे दो साधकोंने मुझसे क्षमा मांगी कि आप हमें साधना बताने आयीं थीं , और हमने आपके सामने शराब पी, आप हमें क्षमा करें | मैंने उन्हें क्षमाकर दिया, वस्तुतः वह मेरी भी परीक्षा ही थी और गुरुकृपासे मैं उत्तीर्ण हो गयी | उस शहरके पश्चात पुनः ऐसी परिस्थिति ईश्वरने नहीं निर्माणकी, इस हेतु मैं उनकी कृतज्ञ हूँ |
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