Tuesday 30 August 2011

शंका समाधान - 1


कल मेरे ब्लॉगपर एक  जिज्ञासुने एक प्रशन पुछा था जो साधनाकी दृष्टीसे महत्वपूर्ण है अतः यह प्रश्न उत्तर सहित आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ |


प्रश्न  : दीदी जी, प्रणाम चार आश्रमों में एक आश्रम है संन्यास आश्रम............... मेरी जिज्ञासा ये है की-- क्या घर परिवार को त्याग कर एकांतवाश या परिवार से कहीं दूर आश्रम या तीर्थों में जाकर आमरण रहने को ही संन्यास कहते हैं या परिवार में ही रहकर भी व्यक्ति सन्यासी हो सकता है ~ जहाँ तक मुझे ज्ञात है हो सकता है मैं गलत होऊ -- किसी शास्त्र में भगवान् ने स्वयं कहा है की जो व्यक्ति काम में भी राम को ढूढता सच्चे अर्थों में वही सन्यासी है -- क्या घर परिवार के दायित्वों को त्यागकर सन्यासी बन जाना पाप नहीं है -- निष्काम भाव से परिवार समाज के बीच रहकर व्यक्ति सन्यासी सा जीवन व्यतीत नहीं कर सकता ~ इति शुभ.... कृपया मेरी जिज्ञासा शांत करने की कृपा करें..... नीरज कुमार मिश्र

प्रणाम,

सर्वप्रथम सन्यास क्या है यह समझ लें | 'सन्यास' शब्दकी उत्पत्ति (सं) + (न्यास) के संजोगसे हुई है | 'सम' अर्थात सर्वस्व और 'न्यास' का अर्थ है अर्पण करना या त्याग करना, सन्यास अर्थात सर्वस्वका त्याग !

भगवन श्रीकृष्णने श्रीमद्भगवद्गीताके अठारहवें अध्याय में कहा है :

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु: ।। - श्रीमद्भगवद्गीता १८.
अर्थ : विद्वतजन कहते हैं कि अपेक्षाके साथ किये गए सर्व कर्मोका त्याग सन्यास है |

सन्यासकी अनुभूति गृहस्थ जीवनमें रहकर भी हो सकता हैं और एकांतमें जाकर भी | मात्र संसारमें रहते हुए सन्यासीकी वृत्ति होनेवाले योगी अत्यंत दुर्लभ है वह अत्यंत कठिन है और इस हेतु कठोर साधना और इश्वर कृपाकी आवशयकता होती है | सन्यासी चाहे सांसारिक हो या एकान्तिक उसका अनासक्त होना परम आवश्यक है |

सन्यास लेना अर्थात घर संसार छोड़ कर साधनामें मगन रहना यह साधनाके अत्यंत उच्च स्तरपर साध्य होता है | ६०% से अधिक स्तर वाला साधक ही सन्यास दीक्षाकी क्षमता रखता है उसके नीचेके स्तर पर संसार सँभालते हुए धर्माचरण करते हुए अपने इन्द्रियोंका निग्रह करना यह सन्यास आश्रममें जानेकी तैयारी करने सामान है | खरे संत किसी भी जीवात्माका अध्यात्मिक स्तर जाने बिना उन्हें सन्यास कभी नहीं देते |

वास्तविकता यह है कि दो ही आश्रम है एक ब्रह्मचर्य और दूसरा सन्यास, मात्र प्रत्येक जीवात्माके लिए यह छलांग लगाना कठिन होता है अतः इश्वर ने दो और आश्रमका निर्माण किया है गृहस्थ और वानप्रस्थ | यह दोनों ही आश्रम सन्यास आश्रम हेतु जीवात्माकी तैयारी करनेके लिए बनाये गए हैं | यह बात और है कि आज भारतीय संस्कृतिमें वर्ण और आश्रम दोनों ही व्यवस्था टूट चुकी है और फल स्वरूप भारतीय संस्कृतिका पतन हो गया है !

धर्माचरण करते हुए गृहस्थ जीवन बीताना और बच्चेके बड़े हो जानेपर उन्हें उत्तरदायित्व सौंप अधिक समय साधना करना यह दोनों (गृहस्थ और वानप्रस्थ ) आश्रमका मूल भूत उद्देश्य था जिससे कि जीवात्मा सहजतासे सन्यास आश्रमकी और बढ़ सके परन्तु धर्मशिक्षण के आभावमें यह व्यवस्था लगभग मृतप्राय हो गयी है !

परिवारमें रहकर साधना करने हेतु बीच-बीचमें किसी गुरुके सानिध्यमें या उनके आश्रम में जाकर रहना चाहिए , कुछ समय एकांतवास भी करना चाहिए जिससे अंतर्मुख होकर अपने जीवनके उद्देश्यका अभ्यास कर सके और ग्रंथोंका वाचन कर सके अन्यथा सांसारिक होते हुए सन्यासी होना असंभव है !

६०% स्तर यह क्या है इस विषयको समझनेके लिए स्तरानुसार साधना जानना आवश्यक है | इस विषयको में संक्षेपमें बताती हूँ | यह मुद्दा हमारे श्रीगुरु (डॉ. जयंत बालाजी आठवले)ने 'अध्यात्मका प्रस्तावनात्मक विवेचन' नामक ग्रन्थमें विस्तारपूर्वक बताया है |

संक्षेप मेंइस मुडी कुछ इस प्रकार समझ सक सकते हैं |



संपूर्ण श्रृष्टिका निर्माण इश्वरने किया है अतः सजीव निर्जीव सभीमें कुछ न मात्रामें सात्त्विकता है ही निर्जीव पदार्थोंमें १ से २% तो सजीव वनस्पति जगतमें लगभग ५% एवं प्राणी जगतमें १०% लगभग सात्त्विकता होती है और मनुष्य योनीमें जन्म लेनेके लिए कमसे कम २०% सात्त्विकता होनी चाहिये ! और इश्वरसे पूर्णतः एकरूप हुए संतोंकी सात्त्विकता १००% होती है | २०% अध्यात्मिक स्तरका व्यक्ति नास्तिक समान होता है उसे अध्यात्म, देवी-देवता, धर्म इत्यादिमें कोई रूचि नहीं होता, ३०% स्तर होनेपर व्यक्ति कर्मकांड अंतर्गत पूजा-पाठ करना, तीर्थक्षेत्र जाना, स्त्रोत्र पठन करना, जैसी शरीरके माध्यमसे साधना करने लगता है | ३५% स्तर साध्य होनेपर खरे अर्थमें उसकी अध्यात्मके प्रति थोड़ी रूचि जागृत होती है और वह साधना करनेका प्रयास आरम्भ करता है | ४०% स्तर होनेपर वह मनसे नामजप करने का प्रयास करता है और ४५ % स्तर आनेपर उसकी अध्यात्ममें रूचि बढ़ने लगती है और अनेक प्रकारकी साधनासे एक प्रकारकी साधनामें उसका प्रवास आरम्भ हो जाता है | ५०% स्तर साध्य होनेपर वह व्यवहारिक जीवनकी अपेक्षा अध्यात्मिक जीवनको अधिक महत्व देने लगता है और सत्संगमें जाना और सेवा करना जैसी अध्यात्मिक कृति निरंतरतासे करने लगता है | ५५% स्तर साध्य करने पर खरे गुरुका उसके जीवनमें प्रवेश हो जाता है और वह तन, मन एवं धन तीनों का ५५% भाग किसी गुरु को, ये गुरुके कार्यके लिए या धर्मकार्यके लिए अर्पण करने लगता है | ६०% अध्यात्मिक स्तरपर खरे अर्थमें सेवा आरम्भ होती है | इससे नीचेके स्तरपर मन एवं बुद्धिद्वारा विषय समझकर सेवा करनेका प्रयास करते हैं | ७०% स्तरपर साधक संतके गुरु पदपर आसीन होता है और ८०% आनेपर सदगुरु पदपर आसीन होता है और ९०% स्तरपर परात्पर पद यह साध्य हो जाता है |


2 comments:

  1. दीदी प्रणाम,, आपके द्वारा दी गयी जानकारी से मैं अक्षरसः सहमत हूँ और मेरी कुछ हद तक जिज्ञासा शांत हुई ~ लेकिन ये प्रतिशत का चक्रव्यूह मेरे समझ में नहीं आ रही है ~ कृपया दीदी जी इसे आप अन्यथा न लें.. मुझे प्रतिशत की गणित समझाने की कृपा करें ~ मैं कैसे जानूं की मैं कितने प्रतिशत सात्विक हूँ ............... कृपया मार्ग दर्शन करने की कृपा करें.... नीरज कुमार मिश्रा ..

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  2. As you have asked for solution for spiritual problem it shows that you are eager to improve. So, you are above 35%. Now if you very much involved in japa, dhyana, chanting and if you have Guru, then you are in 55%. Lets consider 50% to be on safer side. So, push now. We have to attain 90%. Only 40% left.

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