Thursday 25 August 2011

मेरे सर्वज्ञ सद्गुरु भाग - १


मेरे सर्वज्ञ सद्गुरु भाग - १

सदगुरुको मात्र स्थूल देह समझनेका भूल न करें वे सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापी होते हैं और अपनी इस विशेषताका परिचय वे अपने शिष्यको उसकी पात्रता एवं श्रद्धा अनुसार अनुभूतिके माध्यमसे देते हैं | १९९७ में परम पूज्य गुरुदेवके प्रथम दर्शनके पश्चात उन्होंने अनके अनुभूतियाँ प्रदान कीं, कुछ अनुभूतियों आपके समक्ष प्रस्तुत कर सदगुरुके सर्वज्ञता रूपी इस दिव्य गुणका वर्णन कर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करना चाहूंगी | धर्मं प्रसारकी सेवाके दौरान अन्य सम्प्रदायके कुछ गुरु भक्तोंसे मिलनेपर ऐसा भान हुआ कि कुछ गुरु अपने शिष्यको शास्त्र बतानेके स्थानपर अनुभूति देकर उस अनुभूतिके माध्यमसे अध्यात्मशास्त्र एवं गुरुतत्त्वकी विशेषता समझानेका कार्य करते हैं, आशा करती हूँ इस इस लेखकी विभिन्न कड़ियोंके माध्यम आपको भी अपने श्रीगुरुके दिव्य संस्मरण हो जायेंगे और आप गुरुभावके सागरमें डूब जायेंगे |
मेरे सर्वज्ञ गुरुने मेरे जीवनमें प्रवेश करनेसे पूर्व ही मेरी साधना कैसे आरम्भ करायी और और स्थूल रूपमें उनका मेरे जीवनमें प्रवेश कैसे हुआ, सर्वप्रथम यह बताती हूँ.
बचपनसे ही हमारे घरका वातावरण आध्यात्मिक था अतः माता-पिताके माध्यमसे मेरी साधना आरम्भ हुई | घरका वातावरण आश्रम सामान था अर्थात आने-जाने वाले अतिथियोंका तांता लगा रहता था सभी अतिथियोंका प्रेमपूर्वक आदर-सत्कार किया जाता था, सारे व्रत-त्यौहार अत्यधिक विधि-विधान पूर्वक किये जाते थे, जब परिवारके सब सदस्य बैठते थे तो आध्यात्मिक वार्तालाप ही अधिकतर होता था जिसमे धर्मग्रंथोके दृष्टिकोण एवं प्रेरक कहानियां माता-पिता बताया करते थे | फलस्वरूप आश्रममें रहनेमें मुझे कभी कठिनाई नहीं हुई | माता-पिता और और दादी माँ बहुत आध्यात्मिक एवं संस्कारी होनेके कारण अध्यात्मके कुछ महत्वपूर्ण दृष्टिकोण उनसे सीखे या यूँ कहूँ कि मेरे श्रीगुरुने उनके माध्यमसे सिखाये | हमारे माता-पिताके संपर्कमें आनेवाले व्यक्ति कुछ क्षणोंमें ही उनके हो जाते थे, उनसे मैंने प्रेमभाव, यह गुण सीखा | त्यागकी वृत्ति माता-पितामें कूट-कूट कर भरी थी, अतः त्यागकी वृत्ति भी सहज ही आत्मसात हो गयी | बचपनसे माता-पिताद्वारा सिखाये गए श्लोक पठन एवं नामजप किया करती थी | गुरुकृपासे कुछ ऐसे प्रसंग हुए कि 1990 से -ही धर्म और अध्यात्मको जानने और समझनेकी तीव्र तड़प निर्माण होने लगी | विधिवत साधना मेरी तब आरम्भ हुई जब जुलाई १९९४ में छोटे भाईने नामजप, ध्यान और गुरु चरणोंके मानसपाद्य पूजनके बारेमें बताया था l तबसे मैं नियमित सब कुछ स्वयं प्रेरित होकर करती रही l दो वर्षोंमें उसके बताये साधनासे मुझे अनेक व्यवहारिक और आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुई इस कारण मैं मन ही मन उसे गुरु रूपमें देखने लगी l १९९६ में जब मेरी उससे मुंबईमें भेट हुई तब मैंने कृतज्ञताके भावसे उसके चरण स्पर्श भी किये और उससे कहा "अब मुझे पहले जैसा आनंद नहीं मिलता अतः अब आगे क्या करूँ ? मैंने तुम्हें अपना गुरु माना है अतः साधनामें मेरे अगले चरण का मार्गदर्शन करो" | भाईने बड़े ही सहजतासे कहा "दीदी, मेरा और तुम्हारा योगमार्ग भिन्न है, मैं हठयोगी हूँ और तुम भक्तिमार्गी हो, मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूँ, तुम्हारे गुरु कोई और हैं' l इतना कहकर वह चला गया l (मेरा यह छोटा भाई लोगोंको योग सिखाता है और इश्वर कृपासे इसने अनेक व्यक्तिको साधनाके पथपर अग्रसर भी किया है l )
उसकी यह बात सुन जैसे मेरे पैरोंके नीचेकी जमीन खिसक गयी हो, मैं यह सब सुनकर अत्यंत विचलित हो गयी और सोचने लगी कि इस मायानगरी (मुंबई) में सदगुरुको कहाँ खोजूं l मेरा अंतर्मन सदगुरुके लिए तड़पने लगा, समझमें नहीं आ रहा था कि अपनी व्यथा किसे बताऊँ, बहुत रोने की इच्छा हो रही थी l
दो वर्ष पूर्व इसी छोटे भाईने कुछ आध्यात्मिक ग्रन्थ पढने हेतु दिए थे, बचपनसे ही मेरी ज्ञानप्राप्तिमें विशेष रूचि होनेके कारण ग्रंथोंका अभ्यास, मेरी सबसे बड़ी शौक थी l उसके दिए सारे ग्रन्थ मैंने बहुत ध्यानसे अभ्यास किये थे, उसमें कुछ ग्रन्थ स्वामी रामकृष्ण परमहंसजीकी सीखके बारे में भी थी l मैंने उन ग्रंथोंका भी बहुत बारीकीसे अभ्यास किया था | मेरे भाईद्वारा मेरे गुरु कोई और हैं वाली घटनाके तीन चार दिनके उपरान्त एक दिन मेरा ध्यान एक ग्रन्थकी ओर गया जिसके मुखपृष्ठ पर स्वामी रामकृष्ण परमहंसजीका चित्र था, मैंने उस ग्रन्थको हाथमें लेकर स्वामीजीको अपनी सारी व्यथा सुनायी और फूट-फूट कर गुरुको पानेकी इच्छासे रोने लगी मुझे लगा जैसे यदि कुछ दिनोंमें मुझे सदगुरु न मिले तो निश्चित ही मेरे प्राण निकल जायेंगे l मैंने उनकी चित्रको देखकर कहा, "आप कहते है कि संतका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता, संत का तत्त्व हमेशा इस संसारमें व्याप्त रहते हैं तो अब आप ही मुझे मेरे सदगुरुसे साक्षात्कार कराएँ अन्यथा मैं समझुंगी कि आपकी वाणी मिथ्या है और मुझे आप जैसे परमहंस स्तरके सदगुरु चाहिए जो मुझे निर्विकल्प समाधीकी अनुभूति दे सके" इतना कहकर मैं रोने लगी और बहुत देर तक रोती रही स्वामीजीसे इस प्रकारकी बातें करनेके लिए करनेके लिए आज भी मैं उनसे क्षमा मांगती रहती हूँ l इस बातको दो सप्ताह भी नहीं हुए होंगे और एक दिन जब मैं अपने कार्यालयसे वापिस आ रही थी तब अचानक बारिश होने लगी मैं बारिशसे छुपनेके लिए सड़क पार कर एक मंदिरमें चली गयी वहां मैंने एक फलक अर्थात banner देखा, वह सनातन संस्थाका फलक था जिसमें उस मंदिरमें होने वाले सत्संगकी जानकारी थी परन्तु उस फलकमें जो लिखा था उसने मुझे अत्यधिक आकृष्ट किया और वह था 'अच्छा साधक कैसे बने और शंका समाधान' मेरे मनमें अनेक शंकाएं थी और एक अच्छा साधक भी बनना चाहती थी अतः मैंने उस सत्संगमें जानेका निश्चय किया और इस प्रकार उस सत्संगके माध्यमसे मुझे कुछ दिनोंके उपरान्त मुझे मेरे श्रीगुरुसे साक्षात्कार हुआ l आज भी मुझे यही लगता है कि स्वामी रामकृष्ण परमहंसजीने मेरी प्रार्थना सुनकर मुझे मेरे श्रीगुरुसे साक्षात्कार करवाया और सच भी यही है संतके दो रूप होते हैं एक है उनका सगुन रूप अर्थात उनका देह और दूसरा उनका निर्गुण रूप अर्थात उनके अन्दरका ईश्वरीय तत्त्व जो इस ब्रह्माण्डमें सदा व्याप्त रहता है मुझे स्वामीजीके निर्गुण रूपने मार्गदर्शन किया और इसमें दो राय नहीं l
To be continued …………..
If any of my friend would like to translate this series of article as a part of seva in Englsih please do inform me at upasana908@gmail.com as I have friends spread over 90 countries who would like to read this series of article if it gets published in English too , I wont be able to translate the article due to time constraint . regards – tanuja


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