Thursday 26 January 2012

शंका समाधान :


कुछ पंथ एवं संप्रदायके लोग पितरोंके लिए कुछ भी नहीं करते, उनके पितर तो उन्हें कष्ट नहीं देते ?
कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि कुछ पंथके लोग मृत्यु-उपरांतकी यात्राको नहीं मानते, अतः पितरोंके लिए वे कुछ भी नहीं करते, और उन्हें कष्ट भी नहीं होता है - ऐसा क्यों ? सर्वप्रथम तो यह जान लें, कि अध्यात्म-शास्त्र संपूर्ण प्राणी मात्रके लिए समान होता है | जैसे पृथ्वी सूर्यकी परिक्रमा करती है, यह शास्त्र जबसे सृष्टि  है, तबसे सत्य एवं नित्य है | कुछ शताब्दी पूर्व तक कुछ पाश्चात्य देशके लोगोंकी मान्यता इसके विपरीत थी परंतु मान्यताके विपरीत होनेसे सत्य नहीं परिवर्तित होता, सत्य सत्य ही रहने वाला है ,चाहे उसे कोई माने, या न माने | उसी प्रकार जिन सभ्य्तायोंमें, पंथमें, मृत्यु उपरांतकी यात्राको मान्यता नहीं है, उनका अध्यात्म अत्यंत ही अविकसित स्थितिमें है, यह ध्यानमें रखें | हमारे ऋषि-मुनि, तपस्वी, उच्च कोटिके आध्यात्मिक शोधकर्ता थे, उन्हें पता था कि मानव शरीर न रहने पर भी उसका अस्तित्व रहता है | अतः उन्होंने अपनी आध्यात्मिक क्षमताके बलपर, मानव कल्याण हेतु आध्यात्मिक प्रक्रिया विकसितकी, जिसे हम धार्मिक रीति या धर्माचरण कहते हैं | ऐसे सूक्ष्म एवं गूढ़ विषयको समझनेके लिए साधना, अर्थात तपोबल चाहिए | जिन पंथों में पितर जैसे विषयकी मान्यता नहीं, उनके यहाँ भी पितर अशांत होते हैं, और उन्हें कष्ट देते हैं | बाह्य रूपमें वे समृद्ध दिख सकते हैं, पर खरे अर्थमें देवत्वसे उनका दूर-दूर तकका कोई सम्बन्ध नहीं होता, उनके जीवनमें ऐसे असाध्य बीमारी होती है, कि कितने ही रोगके नाम ढूँढनेमें ही उनके वैज्ञानिकोंको कई वर्ष लग जाते हैं | उनका पारिवारिक और कौटुम्बिक जीवन पशु-समान, या उससे भी निम्न कोटिका होता है | समलैंगिकता, एड्स, आतंकवाद, जैसे कई भयावह और समाजके विनाशकारी महारोग, ऐसी ही सभ्यताओंकी देन हैं, यह न भूलें | आज भी इन पंथों और सभ्यताओंके मानने वाले भारतमें शांति ढूंढते हुए आते हैं | अतः वैदिक संस्कृति अनुसार बताये हुए आचरण, अध्यात्म एवं विज्ञान सम्मत हैं| इन आचरणसे ही मानवका कल्याण एवं उत्थान संभव है |

2 comments:

  1. वेद एक स्तर तक के अध्यात्मिक ज्ञान के लिए तो ठीक हैं परन्तु जब बात सर्वशक्तिमान सत्ता की आती है तो वे भी इस विषय पर नेति नेति कहते हैं |
    गुरु नानक देव जी कहते हैं :- साध की महिमा वेद न जानही | जेता सुनही तेता वख्यानाही ||

    अर्थात एक सच्चे साधू की पहुँच वेदों से बहुत परे की होती है | क्या आप इस बात से सहमत नहीं हैं ?

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